Wednesday, December 10, 2008

हययोग का हर्वे हई नई है ! - अशोक पांडे

यानी रात बहुत थे जागे, सुब्ह हुई आराम किया
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बात 1992 की है। नैनीताल में कविताओं की मेरी किताब का विमोचन समारोह निबट चुका था। जैसी कि हमारे यहा¡ हिंदीवालों की रस्म है, इस समारोह का अंत भी एक और महासमारोह में होना था- जिसमें महारथी साहित्यकार फोकट में मिलने वाली दारू की इफ़रात को भा¡प एक से बढ़कर एक मुखाकृतिया¡ बनाते हुए एक से बढ़कर एक वक्तव्य, जुमले, सूक्तिया¡, लतीफ़े, ब्रह्मवाक्य, िक़स्से इत्यादि हवा में तैराया करते हैं। छोटे-छोटे शहरों में तो इन समारोहोपरान्त महासमारोहों का अपना महात्म्य बताया गया है।

दिल्ली, इलाहाबाद और न जाने कहा¡-कहा¡ से बड़े-बड़े नामधारी लेखक-कवियों के आने का कई-कई दिनों तक इन्तज़ार किया जाता है। परचे छपते हैं। बैनर टा¡गे जाते हैं। प्राईवेट आयोजन हुआ तो बाज़ार के दुकानदारों से चन्दा वसूला जाता है। बीस विज्ञापनों वाली चौबीस-पेजी स्मारिकाए¡ छापी जाती हैं और अख़्ाबार वालों को ख़्ाबरें बनाकर दी जाती हैं ताकि इलाक़े भर में हवा फैल जाए कि अमुक समारोह में ऐसे-ऐसे लिक्खाड़ आ रहे हैं कि समारोह मिस होने का मतलब हुआ जीवन का निस्सार रह जाना।

ख़्ौर.... ऐसे ही यह समारोह भी हुआ। दज़Zन भर बड़े कविगणों की उपस्थिति में किताब का विमोचन सम्पन्न हुआ। नवम्बर का महीना होने के कारण ठण्ड बहुत ज़्यादा थी और एक आरामदेह डॉरमेट्री में महासमारोह जल्द ही शुरू हो गया। नैनीताल में इतनी संख्या में इतने बड़े कवि कभी नहीं आए थे सो नगर के साहित्यप्रेमी नौजवान और मास्टरगण इस महासमारोह में बतौर दशZक और श्रोता मौजूद रहने का लोभ नहीं छोड़ पाए। महासमारोह जल्द ही अपने रंग पर आ गया। फ़ोटो खिंचते तो महाकविगण अपने गिलासों को रज़ाई या तकिए या किताब की ओड़ में कर लेते। एक महाकवि वान गॉग ब्राण्ड का तम्बाकू अपने पाइप में लगातार ठ¡ूसते जाते थे और अपनी अदाओं से छोटे शहर के साहित्यानुरागियों को आतंकित किए जाते थे। किसी कोने से पहली उबकाई की आवाज़ आयी तो मैं वहा¡ और देर नहीं बैठ पाया......`` तो ऐसे होते हैं हिंदी के महाकवि´´ - ऐसा सोचते हुए मैं एक मित्र के साथ बाहर आया और अपने पेय सम्बन्धी प्रयोजन से कवियों के सोने के लिए बुक कराए गए कमरों में से एक में घुसा। अन्दर एक लड़का टाइप का लड़का बैठा हुआ था ... बेहद चुपचाप - उम्र यही कोई अठारह-उन्नीस साल। मैं तो उस दिन का स्टार था सो मुझे जब बताया गया कि यह लड़का महासमारोह में उपस्थित एक कविवर का बेटा है, तो मैंने ज़्यादा घास नहीं डाली - हा¡, उसका नाम ज़रूर ज़ेहन में दज़Z हो गया - िशरीष !

बाद के कई साल मेरे जीवन में सतत् आवारगी और उथल-पुथल के रहे और मुझे याद ही नहीं कि िशरीष दुबारा मुझे कब मिला। हो सकता है हज़ार साल बीत गए हों ! वह रानीखेत आ गया था और सरकारी पी.जी. कालेज में हिंदी का बाक़ायदा मास्टर बन गया था। इसके अलावा उसे ब्याह कर लिया था - मेरे नज़दीकी रिश्ते की बहन सीमा से और गौतम नाम का उसका एक बेहद बदमाश बेटा भी है, जिसे उन दिनों दो-ढाई की उम्र में सुबह-सुबह पड़ोस में झोला लेकर `` बेड्डालो .......´´ की पुकार लगाते हुए कबाड़ी का रोल अदा करते देखा जा सकता था। रानीखेत आना-जाना बहुत होता था सो िशरीष से मुलाक़ात भी अब लगातार होने लगी। लगा ही नहीं कि कभी कोई संवाद न होने के बावजूद संवादहीनता रही थी। रातों को दारू पी गई। गपबाज़िया¡ हुईं।

कालेज के उसके प्राचार्य महोदय के बारे में पता लगा कि वे `स´ को `ह´ उच्चरित करते हैं। यानी `िशरीष´ हुआ `हिरीह´ और `सीमा´ हुई `हीमा´ ! बहुत मज़ेदार लगी ये बात। इतनी मज़ेदार लगी कि तब से मैं उसे `हिरिया´ ही कहता ह¡ू। उन दिनों अल्मोड़ा में कार्यरत एक संस्था `सहयोग´ का एक सर्वे चर्चा में था। इस सर्वे में कुमाऊ¡नी ग्रामीण समाज की सैक्सुअलिटी को लेकर बहुत ही अश्लील भाषा में कुछ अनाप-शनाप छापा गया था। लेकिन इस सर्वे पर प्राचार्य महोदय की टिप्पणी बहुत मौज¡ू रही। उनके अनुसार - `` हययोग का हर्वे हई नईं है ´´। तकियाक़लाम इसी तरह ज़बान पर चढ़ते हैं। किसी भी बात से हमें एतराज़ होता है तो हम आदतन कहते हैं - `` हययोग का हर्वे नईं है ! ´´

हिरिया के बारे में एक और बात पता लगी। उन दिनों वह बीहड़ प्रजाति का मा¡साहारी था। किलो-दो किलो भेड़-बकरी अकेले सूत देना उन दिनों उसके बाए¡ जबड़े का खेल हुआ करता था। एक बार रानीखेत में मैं उसके घर टिका। सुबह हम बाज़ार जाकर डेढ़ किलो गोश्त भेड़ का ले आए। सीमा मायके गई हुई थी और घर-रसोई पर हमारा एकछत्र राज था। ख़्ौर, उसे कालेज जाना था और मुझे शहर में कुछ काम था। शाम को मीट-भात और रम का कार्यक्रम तय पाया गया। मुझे रानीखेत क्लब में ही कुछ दोस्तों ने फ¡सा लिया और हिरिया के पास पह¡ुचते-पह¡ुचते साढ़े आठ बज गए। रानीखेत के साढ़े आठ की तुलना प्लेन्स के शहरों के ग्यारह-बारह से की जा सकती है।

जैसी कि उम्मीद थी वह थोड़ा नाराज़ था और रसोई में कुछ खटपट में लगा हुआ था। रम का गिलास भरा हुआ था और उसकी आ¡खें लाल हो रही थीं। समझौता जल्द ही हो गया और उसे बोत्याने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। एक-दो गिलास रम के धकेल चुकने के बाद मैंने उससे खाना देने को कहा। मेरी जीभ में शीघ्र प्राप्त होने वाले स्वादिष्ट भोजन की कल्पना ही से पानी आ रहा था। मैंने ख़्ाूब सारा खाने की तय कर रक्खी थी। वह प्लेट में थोड़ा-सा जला हुआ भात और थोड़ी-सी तरी के साथ एक टुकड़ा गोश्त डालकर मेरे सामने रखकर बोला - ``आप शुरू करो, मैं अपनी प्लेट लेकर आया´´। उसकी प्लेट में भी उतना ही माल पड़ा हुआ था। मैंने कुछ न कहते हुए ख़्ाुद ही मौका-मुआयना करने का फ़ैसला किया। रसोई में जाकर देखा तो कुुकर सिंक में पढ़ा था और रसोई के फ़शZ और कूड़ेदान में हिìया¡ बिखरी पड़ी थीं। मेरे इन्तज़ार की कुंठा में महोदय अकेले ही डेढ़ किलो गोश्त निबटा चुके थे। आपने किसी के इन्तज़ार या ग़म में लोगों को डेढ़ बोतल शराब निबटाते तो देखा-सुना होगा पर डेढ़ किलो गोश्त निबटाते देखना है तो हमारे हिरिया से मिलिए!

अब उसके गोश्त खाने पर चिकित्सकीय पाबंदिया¡ लग चुकी हैं और पता नहीं क्या-क्या बीमारिया¡ अपने को लगा चुका है वह। उम्र में मुझसे सात साल छोटा हिरिया जब-जब डाक्टरों-रिपोटोZं की बात करता है - मुझे बहुत मनहूस लगने लगता है। अच्छा है कि उसके साथ सीमा जैसी पत्नी है जो उसके रूटीन का ध्यान रखती है और जाहिर है कि उसके लिए ज़रूरी परहेज़ भी सुनििश्चत करती है।

उसके और मेरे बीच एक और सूत्र है जो हमारी बातों में रस और उत्साह की मात्रा बढ़ा देता है। और वह है नैनीताल का छोटा-सा तराई क़स्बा रामनगर, जो हम दोनों के बचपन का मैदान रहा है और अब हिरिया की ससुराल भी है। रामनगर के हिंदुस्तान-पाकिस्तान, वहा¡ के लोगों का `फिटबाल-प्रेम´, जीवन को लेकर एक सन्तुष्ट आत्ममुग्धता, दो इंटर कालेज, एक डिग्री कालेज, म¡ूग की दाल की कचरी, रम´दा का कविता-प्रेम, उस ज़माने की लड़किया¡, स्कूलों के मास्साब, कुंदन दी हट्ठी की खुरचन और रसमलाई, बनवारी मधुबन नामधारी पिक्चर हॉल, बौने के बम-पकौड़े इत्यादि बेजोड़ चीज़ों से बना यह शहर अक्सर हमारी बातचीत का विषय बनता है।

उसके साथ योजनाए¡ बनाना भी मुझे अच्छा लगता है। यह बात अलबत्ता दूसरी है कि एकाध को छोड़कर ज़्यादातर योजनाए¡ फेल ही हुई हैंं। अब वह बेहतर नौकरी पाकर यानी रीडर बनकर कुमाऊ¡ विश्वविद्यालय, नैनीताल आ चुका है और अब यहीं रहेगा। इस अप्वाइंटमेन्ट की ख़्ाुशी में यह योजना बनी थी कि वह मुझे हर महीने पा¡च सौ रूपए देगा। यह सातवा¡ महीना चल रहा है और इस हिसाब से उस पर मेरे साढ़े तीन हज़ार रुपए बनते हैं। मैंने सुना है कि वह कविता वगैरह भी अच्छी-ख़्ाासी लिखने लगा है। मैंने यह भी सुना है कि इधर उस जैसे कविता लिखने वालों को इस काम के पैसे भी मिलने लगे हैं। सो पैसा मिलने की मेरी उम्मीद बरक़रार है!

आमेन !

(अशोक पांडे िशरीष के सबसे अभिन्न-आत्मीय मित्र हैं। स्वयं अच्छे कवि, घुमक्कड़शास्त्री, संगीत-प्रेमी तथा हिंदी के विख्यात अनुवादक हैं। उनकी ससुराल ऑस्ट्रिया में है, सो वे भारत और यूरोप के बीच आते-जाते और अटके-लटके रहते हैं। स्पेनिश तथा अंग्रेज़ी से हिंदी में और हिंदी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हैं। संवाद प्रकाशन से अनुवाद की कई पुस्तकें प्रकािशत तथा कई अनुवाद-पुस्तकें प्रकाशन की पंक्ति में हैं।
सम्पर्क - डी-35, जज फार्म, हल्द्वानी, ज़िला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन- 263 139 )

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