Wednesday, December 10, 2008

हययोग का हर्वे हई नई है ! - अशोक पांडे

यानी रात बहुत थे जागे, सुब्ह हुई आराम किया
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बात 1992 की है। नैनीताल में कविताओं की मेरी किताब का विमोचन समारोह निबट चुका था। जैसी कि हमारे यहा¡ हिंदीवालों की रस्म है, इस समारोह का अंत भी एक और महासमारोह में होना था- जिसमें महारथी साहित्यकार फोकट में मिलने वाली दारू की इफ़रात को भा¡प एक से बढ़कर एक मुखाकृतिया¡ बनाते हुए एक से बढ़कर एक वक्तव्य, जुमले, सूक्तिया¡, लतीफ़े, ब्रह्मवाक्य, िक़स्से इत्यादि हवा में तैराया करते हैं। छोटे-छोटे शहरों में तो इन समारोहोपरान्त महासमारोहों का अपना महात्म्य बताया गया है।

दिल्ली, इलाहाबाद और न जाने कहा¡-कहा¡ से बड़े-बड़े नामधारी लेखक-कवियों के आने का कई-कई दिनों तक इन्तज़ार किया जाता है। परचे छपते हैं। बैनर टा¡गे जाते हैं। प्राईवेट आयोजन हुआ तो बाज़ार के दुकानदारों से चन्दा वसूला जाता है। बीस विज्ञापनों वाली चौबीस-पेजी स्मारिकाए¡ छापी जाती हैं और अख़्ाबार वालों को ख़्ाबरें बनाकर दी जाती हैं ताकि इलाक़े भर में हवा फैल जाए कि अमुक समारोह में ऐसे-ऐसे लिक्खाड़ आ रहे हैं कि समारोह मिस होने का मतलब हुआ जीवन का निस्सार रह जाना।

ख़्ौर.... ऐसे ही यह समारोह भी हुआ। दज़Zन भर बड़े कविगणों की उपस्थिति में किताब का विमोचन सम्पन्न हुआ। नवम्बर का महीना होने के कारण ठण्ड बहुत ज़्यादा थी और एक आरामदेह डॉरमेट्री में महासमारोह जल्द ही शुरू हो गया। नैनीताल में इतनी संख्या में इतने बड़े कवि कभी नहीं आए थे सो नगर के साहित्यप्रेमी नौजवान और मास्टरगण इस महासमारोह में बतौर दशZक और श्रोता मौजूद रहने का लोभ नहीं छोड़ पाए। महासमारोह जल्द ही अपने रंग पर आ गया। फ़ोटो खिंचते तो महाकविगण अपने गिलासों को रज़ाई या तकिए या किताब की ओड़ में कर लेते। एक महाकवि वान गॉग ब्राण्ड का तम्बाकू अपने पाइप में लगातार ठ¡ूसते जाते थे और अपनी अदाओं से छोटे शहर के साहित्यानुरागियों को आतंकित किए जाते थे। किसी कोने से पहली उबकाई की आवाज़ आयी तो मैं वहा¡ और देर नहीं बैठ पाया......`` तो ऐसे होते हैं हिंदी के महाकवि´´ - ऐसा सोचते हुए मैं एक मित्र के साथ बाहर आया और अपने पेय सम्बन्धी प्रयोजन से कवियों के सोने के लिए बुक कराए गए कमरों में से एक में घुसा। अन्दर एक लड़का टाइप का लड़का बैठा हुआ था ... बेहद चुपचाप - उम्र यही कोई अठारह-उन्नीस साल। मैं तो उस दिन का स्टार था सो मुझे जब बताया गया कि यह लड़का महासमारोह में उपस्थित एक कविवर का बेटा है, तो मैंने ज़्यादा घास नहीं डाली - हा¡, उसका नाम ज़रूर ज़ेहन में दज़Z हो गया - िशरीष !

बाद के कई साल मेरे जीवन में सतत् आवारगी और उथल-पुथल के रहे और मुझे याद ही नहीं कि िशरीष दुबारा मुझे कब मिला। हो सकता है हज़ार साल बीत गए हों ! वह रानीखेत आ गया था और सरकारी पी.जी. कालेज में हिंदी का बाक़ायदा मास्टर बन गया था। इसके अलावा उसे ब्याह कर लिया था - मेरे नज़दीकी रिश्ते की बहन सीमा से और गौतम नाम का उसका एक बेहद बदमाश बेटा भी है, जिसे उन दिनों दो-ढाई की उम्र में सुबह-सुबह पड़ोस में झोला लेकर `` बेड्डालो .......´´ की पुकार लगाते हुए कबाड़ी का रोल अदा करते देखा जा सकता था। रानीखेत आना-जाना बहुत होता था सो िशरीष से मुलाक़ात भी अब लगातार होने लगी। लगा ही नहीं कि कभी कोई संवाद न होने के बावजूद संवादहीनता रही थी। रातों को दारू पी गई। गपबाज़िया¡ हुईं।

कालेज के उसके प्राचार्य महोदय के बारे में पता लगा कि वे `स´ को `ह´ उच्चरित करते हैं। यानी `िशरीष´ हुआ `हिरीह´ और `सीमा´ हुई `हीमा´ ! बहुत मज़ेदार लगी ये बात। इतनी मज़ेदार लगी कि तब से मैं उसे `हिरिया´ ही कहता ह¡ू। उन दिनों अल्मोड़ा में कार्यरत एक संस्था `सहयोग´ का एक सर्वे चर्चा में था। इस सर्वे में कुमाऊ¡नी ग्रामीण समाज की सैक्सुअलिटी को लेकर बहुत ही अश्लील भाषा में कुछ अनाप-शनाप छापा गया था। लेकिन इस सर्वे पर प्राचार्य महोदय की टिप्पणी बहुत मौज¡ू रही। उनके अनुसार - `` हययोग का हर्वे हई नईं है ´´। तकियाक़लाम इसी तरह ज़बान पर चढ़ते हैं। किसी भी बात से हमें एतराज़ होता है तो हम आदतन कहते हैं - `` हययोग का हर्वे नईं है ! ´´

हिरिया के बारे में एक और बात पता लगी। उन दिनों वह बीहड़ प्रजाति का मा¡साहारी था। किलो-दो किलो भेड़-बकरी अकेले सूत देना उन दिनों उसके बाए¡ जबड़े का खेल हुआ करता था। एक बार रानीखेत में मैं उसके घर टिका। सुबह हम बाज़ार जाकर डेढ़ किलो गोश्त भेड़ का ले आए। सीमा मायके गई हुई थी और घर-रसोई पर हमारा एकछत्र राज था। ख़्ौर, उसे कालेज जाना था और मुझे शहर में कुछ काम था। शाम को मीट-भात और रम का कार्यक्रम तय पाया गया। मुझे रानीखेत क्लब में ही कुछ दोस्तों ने फ¡सा लिया और हिरिया के पास पह¡ुचते-पह¡ुचते साढ़े आठ बज गए। रानीखेत के साढ़े आठ की तुलना प्लेन्स के शहरों के ग्यारह-बारह से की जा सकती है।

जैसी कि उम्मीद थी वह थोड़ा नाराज़ था और रसोई में कुछ खटपट में लगा हुआ था। रम का गिलास भरा हुआ था और उसकी आ¡खें लाल हो रही थीं। समझौता जल्द ही हो गया और उसे बोत्याने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। एक-दो गिलास रम के धकेल चुकने के बाद मैंने उससे खाना देने को कहा। मेरी जीभ में शीघ्र प्राप्त होने वाले स्वादिष्ट भोजन की कल्पना ही से पानी आ रहा था। मैंने ख़्ाूब सारा खाने की तय कर रक्खी थी। वह प्लेट में थोड़ा-सा जला हुआ भात और थोड़ी-सी तरी के साथ एक टुकड़ा गोश्त डालकर मेरे सामने रखकर बोला - ``आप शुरू करो, मैं अपनी प्लेट लेकर आया´´। उसकी प्लेट में भी उतना ही माल पड़ा हुआ था। मैंने कुछ न कहते हुए ख़्ाुद ही मौका-मुआयना करने का फ़ैसला किया। रसोई में जाकर देखा तो कुुकर सिंक में पढ़ा था और रसोई के फ़शZ और कूड़ेदान में हिìया¡ बिखरी पड़ी थीं। मेरे इन्तज़ार की कुंठा में महोदय अकेले ही डेढ़ किलो गोश्त निबटा चुके थे। आपने किसी के इन्तज़ार या ग़म में लोगों को डेढ़ बोतल शराब निबटाते तो देखा-सुना होगा पर डेढ़ किलो गोश्त निबटाते देखना है तो हमारे हिरिया से मिलिए!

अब उसके गोश्त खाने पर चिकित्सकीय पाबंदिया¡ लग चुकी हैं और पता नहीं क्या-क्या बीमारिया¡ अपने को लगा चुका है वह। उम्र में मुझसे सात साल छोटा हिरिया जब-जब डाक्टरों-रिपोटोZं की बात करता है - मुझे बहुत मनहूस लगने लगता है। अच्छा है कि उसके साथ सीमा जैसी पत्नी है जो उसके रूटीन का ध्यान रखती है और जाहिर है कि उसके लिए ज़रूरी परहेज़ भी सुनििश्चत करती है।

उसके और मेरे बीच एक और सूत्र है जो हमारी बातों में रस और उत्साह की मात्रा बढ़ा देता है। और वह है नैनीताल का छोटा-सा तराई क़स्बा रामनगर, जो हम दोनों के बचपन का मैदान रहा है और अब हिरिया की ससुराल भी है। रामनगर के हिंदुस्तान-पाकिस्तान, वहा¡ के लोगों का `फिटबाल-प्रेम´, जीवन को लेकर एक सन्तुष्ट आत्ममुग्धता, दो इंटर कालेज, एक डिग्री कालेज, म¡ूग की दाल की कचरी, रम´दा का कविता-प्रेम, उस ज़माने की लड़किया¡, स्कूलों के मास्साब, कुंदन दी हट्ठी की खुरचन और रसमलाई, बनवारी मधुबन नामधारी पिक्चर हॉल, बौने के बम-पकौड़े इत्यादि बेजोड़ चीज़ों से बना यह शहर अक्सर हमारी बातचीत का विषय बनता है।

उसके साथ योजनाए¡ बनाना भी मुझे अच्छा लगता है। यह बात अलबत्ता दूसरी है कि एकाध को छोड़कर ज़्यादातर योजनाए¡ फेल ही हुई हैंं। अब वह बेहतर नौकरी पाकर यानी रीडर बनकर कुमाऊ¡ विश्वविद्यालय, नैनीताल आ चुका है और अब यहीं रहेगा। इस अप्वाइंटमेन्ट की ख़्ाुशी में यह योजना बनी थी कि वह मुझे हर महीने पा¡च सौ रूपए देगा। यह सातवा¡ महीना चल रहा है और इस हिसाब से उस पर मेरे साढ़े तीन हज़ार रुपए बनते हैं। मैंने सुना है कि वह कविता वगैरह भी अच्छी-ख़्ाासी लिखने लगा है। मैंने यह भी सुना है कि इधर उस जैसे कविता लिखने वालों को इस काम के पैसे भी मिलने लगे हैं। सो पैसा मिलने की मेरी उम्मीद बरक़रार है!

आमेन !

(अशोक पांडे िशरीष के सबसे अभिन्न-आत्मीय मित्र हैं। स्वयं अच्छे कवि, घुमक्कड़शास्त्री, संगीत-प्रेमी तथा हिंदी के विख्यात अनुवादक हैं। उनकी ससुराल ऑस्ट्रिया में है, सो वे भारत और यूरोप के बीच आते-जाते और अटके-लटके रहते हैं। स्पेनिश तथा अंग्रेज़ी से हिंदी में और हिंदी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हैं। संवाद प्रकाशन से अनुवाद की कई पुस्तकें प्रकािशत तथा कई अनुवाद-पुस्तकें प्रकाशन की पंक्ति में हैं।
सम्पर्क - डी-35, जज फार्म, हल्द्वानी, ज़िला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन- 263 139 )

Saturday, November 29, 2008

शामिल रह कर कविता - व्योमेश शुक्ल

( 1 )
इसे एक केन्द्रीय दिक़्कत माना जाना चाहिए कि हमारे दौर की बहुत-सी कविता उत्तरआधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक प्रपंचों का सामना करने भीतरी सदिच्छा के बावजूद खुद उसी में विलीन होती जा रही है और अकसर ही वह उसी अनवरत कोहराम के किसी हिस्से की तरह सामने आती है। उसे देखकर यह शक होता है कि यह कविता वाकई उन मानवद्रोही वजहों के भीतर ही मुमकिन हो सकती थी ! जैसे-जैसे ताक़त के प्रतिष्ठान से मुठभेड़ की जगहें अधिक गोपनीय और अप्रत्यािशत होती गई हैं और अभिनव रणनीतियों की ज़रूरत बढ़ती गई है, वैसे-वैसे इस जटिल वस्तुस्थिति का ग़लत फ़ायदा उठाने की हरक़तों में भी उफान आ गया है। दूसरी ओर कुछ लोग चातुर्यपूर्ण सामान्यीकरण करके अफवाह फैलाने में लगे हुए हैं। ऐसे लोगों का एक गिरोह युवा कविता को अराजनीतिक बताते हुए इसकी भत्र्सना करने पर आमादा है तो दूसरा गिरोह अराजनीतिक कविताओं के लिखे जाने की प्रशंसा में लगा हुआ है। सचाई जबकि यह है कि जिसे युवा कविता कहने का आजकल चलन है, उस समेत, समूची हिंदी कविता अराजनीतिक कतई नहीं है। हम देख सकते हैं कि निरीह, रद्दी, लचर और चापलूस अपवादों को कभी प्रशंसा, कभी निंदा के ज़रिये प्रोत्साहित करने और उसे ही युवा कविता के नाम पर स्थापित करने की हास्यास्पद कोशिशें की जा रही हैं। इस तरह ऐसे जितने भी गिरोह हैं, वे दरअसल एक ही गिरोह में समाहित हैं और ऐसा विमर्श अधिक से अधिक अफ़वाहों का विमर्श है।
िशरीष कुमार मौर्य इस निरंतर बहस में शामिल रहकर और इसके कोनो-अंतरों को जा¡चकर कविता लिखते हैं। उनकी कविता को ऊपर बताए परिप्रेक्ष्य में सुधार की एक कोिशश के तौर पर भी पढ़ जा सकता है। यों संघषZ के औज़ार के रूप में कविता को इस्तेमाल करने में उसके व्यापकतर अर्थ को सीमित कर देने के ख़्ातरे भी ख़्ाूब हैं, लेकिन हद है कि िशरीष की कविता कभी-कभी अपने समूचे अस्तित्व के साथ ख़्ाुद को संघषZ के इसी बिंदु पर उपस्थित कर देती है।
( 2 )
िशरीष कई उम्रों के कवि हैं। बचपन, कैशौर्य, यौवन और प्रौढ़ता के भी कवि ! इन उम्रों के बीच के फ़ासलों में भी उनकी कई कविताए¡ हैं। उन्होंने अपनी घटती-बढ़ती उम्र के ज़रिये कई समयों में एक साथ आवाजाही की है। इस बात ने अजब तौर पर उनके काव्य को अनुभव-सम्पन्न बनाया है। उनकी किताब `शब्दों के झुरमुट में´ की कविताओं में कवि वीरेन डंगवाल ने `स्मृति की प्रगाढ़ता, निष्कलुषता और भोलेपन´ को अलग से रेखांकित किया था। इस बीच िशरीष ने इन ख़्ाूबियों के भी अलग-अलग संस्करण कर लिए हैं। पहली किताब का किशोर सैलानी अनेक भूगोलों का सफ़र करता हुआ कविता के सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में अब दािख़्ाल है। उनकी कविता में ख़्ात्म हो रही जगहें, विकृत हो रहे इंसानी रिश्ते, मानवता का सामूहिक पश्चाताप, प्रेम की जटिलताए¡, प्रकृति के कोमलतम प्रदेश, राग, स्त्री और बच्चों का शक्तिशाली और अनौपचारिक हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है। समाज में प्रतिकार की शक्तियों को पराजित या अपमानित किए जाने की उदासी िशरीष की संग्रह-बाद कविताओं में बढ़ती गई है, जिसने उनके किशोर जगमग काव्य-संसार को बहुत दूर तक “यामल कर दिया है।
( 3 )
वक़्त के दबाव ने साहित्य में विधागत शुद्धता के ख़्ायाल को तितर-बितर कर दिया है तो प्रचलित और प्रशंसित काव्यत्व को कविता के मूल्यांकन का पैमाना बनाने की कोिशशें भी निस्तेज हो गई हैं। दरअसल मुक्तिबोध के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव ने बाद की कविता को ब्रह्मांड के सभी पदाथोZं का सामना करने, उनका अनुशीलन करने और उन्हें आभ्यंतरीकृत करने का कार्यभार सौंप दिया है। आज की कविता के विश्लेषण का एक खरा मुक्तिबोधीय मानदंड यह भी हो सकता है कि वस्तुतत्व का कितना स्वस्थ और वैज्ञानिक आभ्यंतरीकरण कर पाती है। अपनी एक कविता `ज़रूरी है हमारा होना´ में िशरीष कहते हैं -
संसार की
सबसे बड़ी नदी हमारे अंदर बहती है
संसार का सबसे घना जंगल
हमारे अंदर उगता है

हमारे ख़्ाून में होता है
संसार का सबसे ख़्ाूबसूरत रंग
संसार के सबसे ख़्ाूबसूरत परिंदे
हमारे सीने में उड़ते ...

और मित्रो !
होता है यह सब
जब होते हैं हम

ज़रूरी है हमारा होना
हम जो संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य हैं
और सबसे बड़ा
सच भी हैं हम ही !

यह कविता वाल्टर बेंजामिन के मुहावरे में कहें तो अपने होने को लेकर आभारी है। अपने से इतर समस्त चराचर के प्रति, जिससे इसने अभिन्नता का विलक्षण संबंध स्थापित किया है। यह कविता कृतज्ञता व्यक्त करती है और इसे पढ़ते हुए मुक्तिबोध का एक महावाक्य याद आता है, जिसके मुताबिक लेखक का आत्म एक आभ्यंतरीकृत विश्व है।
( 4 )
िशरीष सरीखा समर्थ कवि अपनी काव्ययात्रा की बिल्कुल शुरूआत से ही ऐसी कुछ विशेषताए¡ हासिल कर लेता है, जिनके बारे में कोई सोच सकता है कि वे आते-आते ही आती होंगी। मसलन उनकी आरिम्भक कविताए¡ भी अपने तत्काल में विघटित होकर आगे के समयों के लिए अप्रासंगिक नहीं हो जातीं, जबकि वह अपने दौर की तकलीफ़ों को ही सम्बोधित थीं। यानी इस कवि की सा¡स बहुत लम्बी है, जिसके दम पर वह अपने वर्तमान को सुदूर स्थित भविष्य में स्थापित कर देती हैं। निरलंकृति की हद तक जाकर अपनी एक छोटी कविता में वह कहते हैं -
हक़
उन्हें भी था
जो मारे गए
हक़ के लिए

और हक़
उन्हें भी है
जो मारे जायेंगे

ग़रीबों के पास
सिफ़Z हक़ होता है
चीज़ों पर

चीज़ें नहीं !

यह दृश्य ख़्ाासा विडम्बनाजनक है कि भारत की हिंस्त्र और अन्यायी होती जाती सामाजिक परिस्थितियों के बरअक़्स इस ओर ऐसी कविता की मर्मस्पिशZता बढ़ती गई है। इस कविता के वर्तमान को खंगालें तो पायेंगे कि स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन से खदेड़ी गई आबादी के पास - यही बात है - कि, चीज़ें तो हैं, चीज़ें नहीं।
( 5 )
िशरीष अपने स्वभाव के मुताबिक प्रकृति और समाज के उपेक्षित, उत्पीड़ित, नामालूम, चुप्पा लेकिन जीवन्त और उद्दण्ड लोगों, पशु-पक्षियों और स्थितियों के साथ हैं। उनके जैसे लेखक गवाह भर नहीं होते। वे घटनाओं के कारण या घटनाओं में शामिल लोगों की तरह सामने आते हैं। इसलिए भी िशरीष की कविता का ज़ोर परिष्कार, अलंकरण, वक्रोक्ति, आप्तवचन और कलात्मकता पर नहीं है - बल्कि अकसर वह जीवन-यथार्थ से लथपथ एक अनायास-सी चीज़ है, जिसमें उसका स्रष्टा अनिवार्यत: शामिल रहता है। सर्जक मन और भोक्ता मन को, जीवनानुभ्ूति और काव्यानुभूति को भिन्न-भिन्न समझने और समझानेवाली अज्ञेयवादी आधुनिकता के उलट यह जीवनानुभव को ही पहचानने वाली, उसे ही व्यक्त करने वाली मुक्तिबोधीय महायोजना की कविता है। प्रसंगवश, उनकी कविता `कबाड़ी´ के नायक में कवि की आत्मछवि िझलमिलाती है -

तिरस्कृत चीज़ों का बोझ
अपने कंधों पर लादे
सड़कों पर घूमता कबाड़ी जानता है
अच्छे से अच्छा लोहा भी
सात रुपए किलो बिक जाता है
चार रुपए किलो बिक जाती है
अपने समय की सबसे शानदार ख़्ाबर !

( 6 )

िशरीष की `परिपक्व और हठीली इतिहास-दृिष्ट´ को बार-बार रेखांकित किया गया है। कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी का मानना है कि `उनके पास निरंतर जाग्रत, एकाग्र और मुक्तिधमीZ विवेक है, जो इतिहास, भूगोल, सभ्यता और संस्कृति में प्राथमिकता किस्म की दिलचस्पी से संतुष्ट नहीं हो जाता, बल्कि उनके अंतरंग विश्लेषण के जरिये व्यापक मनुष्यता के हित में मूल्यवान और मार्मिक निष्कषोZं तक पह¡ुचना चाहता है।´ इतिहास-बोध िशरीष के काव्य-व्यक्तित्व का अनिवार्य तत्व है। इधर की कविता पर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि वह परम्परा और साहिित्यक स्मृति से वंचित कविता है और वह अपने अतीत में नहीं जा पाती। िशरीष की अनेक कविताए¡ ऐसे आरोपों का प्रत्युत्तर हैं। निहायत परिचित और बेतक़़ल्लुफ़ लहजे में वह कहावतों, लोकवार्ताओं और पूर्वज कविता का अन्वेषण करते हैं और वहीं से आज की तकलीफ़ों का परिप्रेक्ष्य भी निर्मित करते हैं। राजा और िक़ले का िक़स्सा, बाबा मैंने सपना देखा, चींटिया¡ और एक प्रागैतिहासिक कविता ऐसी ही कविताए¡ हैं।
( 7 )

िशरीष की कविता में दोस्ती के लिए बहुत सारी जगह है, न सिफ़Z उनकी किताब दो साहित्येतर मित्रों - रम´दा और प्रदीप को समर्पित है, बल्कि अलग से भी कविताए¡ दोस्तों को भेंट की गई हैं। दोस्त और दोस्ती की अवधारणा को सम्बोधित कई कविताए¡ पहले संग्रह में है। कवि ने अपनी कविता में मनुष्यों के पारस्परिक संवाद को बहुत महत्व दिया है। संवाद ही वह जगह है, जहा¡ एक मनुष्य के तौर पर अपने दायित्व को पहचानने का मौका मिलता है। संवाद ही वह जगह है, जहा¡ होकर अपने अस्तित्व को चरितार्थ किया जा सकता है। पेड़ों के लिए पंछी, पंछियों के लिए आकाश, मिट्ठी के लिए बीज और नसों के लिए रक्त जिस तरह अनिवार्य है( मनुष्यता के लिए संवाद भी वैसे ही अनिवार्य है -

पेड़ों को पंछी मिले
पंछियों को आकाश
मिट्ठी को बीज मिला
बीज को पानी
पहाड़ों को मिली ऊ¡चाई
और मेरे भाई !
हमको मिला हमारी नसों में
भरपूर रक्त
और थोड़ा-सा वक़्त
इस दुनिया में रहने के लिए
अपनी बात
एक दूजे से कहने के लिए !
(मित्र संवाद)

( 8 )

हिंदी साहित्य संसार में प्रकृति और लोक के नाम पर मुग्ध और आत्महीन हो जाने का ख़्ातरनाक़ खेल इन दिनों जोर-शोर से चल रहा है। `अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है´ वाला काव्य विवेक इस बीच लगातार विकराल होता गया है। प्रकृति और मनुष्य की परस्पर निर्भरता की अभिनव पद्धतिया¡ विकसित करने की बजाए प्रकृति की आसान चित्रावलिया¡ कविता में तैयार की जा रही हैं। लोक के हाहाकार और हाहाकार की वजहों की जटिलताओं में जाने के उलट किसी सामंती मन की वासना को तृप्त और तुष्ट करने के लिए बिना किसी केन्द्रीय विचार के ग्राम्य और वन्य जीवन के पिक्चर-पोस्टकार्ड काव्य के भीतर चिपकाए जा रहे हैं। ऐसी कविता को सराहने और विमशZ के केन्द्र में ले आने के प्रयत्न एक भीषण मानव-विरोधी कार्यक्रम का हिस्सा तो हैं ही, प्रकृति के साथ श्रेष्ठ और द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध बनानेवाली विचारशील कविता के शत्रु भी हैं। यह ग़ौरतलब है कि प्रकृति को पुनसृZजित करने की िशरीष की प्राय: सभी कोिशशें मौलिक और शक्तिसम्पन्न है। `लाल प¡ूछ वाला पक्षी´ शीषZक कविता में एक विरल पक्षी कवि की निगाह में आकर बैठता और चला जाता है। इस बिल्कुल मामूली और रोज़मर्रा घटना को प्रकृति-वास्तव के सम्यक बोध से कवि ने कविता का जीवन दे दिया। कविता को एक पक्षी को एक बार देखने की कविता मानना भूल होगी। पक्षियों सहित प्रकृति के विविध तत्वों, प्रकृति में लगातार हो रही अनेक घटनाओं के असेZ तक चलने वाले मासूम अवलोकन के बाद ही वह आत्मविश्वास आकार लेता है, जिसकी परिधि में आकर एक निहायत सादा गति में सम्भव हो रहे काव्यत्व का पता चलने लगता है। कविता कुछ य¡ू है -

एक दिन अचानक दिखा
लाल प¡ूछ वाला पक्षी
पतझर में नंगे पेड़ की डाल पर
फिर उड़ गया

उसे पता था शायद
कि मैंने उसे देखा
कि वो कुछ ख़्ाास है
कि उसकी प¡ूछ लाल है

काश कि वो भी सहज होता
गौरैयों की तरह
उतरता आ¡गन में
फुदकता और देखते हम !

( 9 )
ऐसे ही, पहाड़ घर के बुज़ुर्ग की तरह िशरीष की कविताओं में शुरू से अंत तक हैं। िशरीष ने पहाड़ को इतने तरीकों से अर्जित करके अपनाया है कि वह पहाड़ का किसी भी रूप में इस्तेमाल कर ले जाते हैं। कहीं वह दृश्य है, कहीं चरित्र, कहीं अवधारणा है, कहीं एक चमकता हुआ बिम्ब और वहीं पर दूर तक ले जाने वाला रूपक भी वह हो सकता है। संग्रह की पहली कविता `पहाड़´ में पहाड़ के साथ कवि के बहुआयामी सम्बन्ध का अहसास हो जाता है। हमारा होना, बसन्त के लिए विदागीत, हमारे शब्द शीषZक कविताओं में पहाड़ सीधे-सीधे झलक जाता है। जबकि पहाड़ की चढ़ाइयों और ढलानों के अदृश्य सिलसिले और पहाड़ की तलहटी के जीवन का व्यापकतर कोलाहल िशरीष की कविता में अपनी शक़्ल बदलकर मौजूद है। पहाड़ के साये में निर्मित और विकसित हुई सभ्यता का मेला प्राय: उस कविता में लगा हुआ है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए इस निष्कषZ तक पह¡ुचना भी ख़्ाासा काव्यात्मक है कि `शब्दों के झुरमुट में´ नामक कविता संग्रह के लेखक का ठौर-ठिकाना भी संग्रह की कविताए¡ आप ही बता देती हैंं। िशरीष का पता, उस पते का भौगोलिक मानचित्र, उनके सरोकारों के ज़रिये हम तक पह¡ुच जाता है। वह जगह किसी क़स्बे का आिख़्ारी घर है, जिसके ठीक बाद से विराट वैविध्य वाला एक जंगल शुरू हो जाता है। उस जंगल के शीषZ पर एक बूढ़ा पहाड़ हमेशा मौजूद है और वह जंगल हिंदी कविता के `सिद्ध´ कवियों का वनक्षेत्र नहीं है, जहा¡ प्रत्येक वस्तु किसी अन्य वस्तु का प्रतीक है( बल्कि वह असली जानवरों, ऋतुओं और वनस्पतियों से भरा हुआ है। जो चीज़ एक प्रकृति-वंचित पाठक के रूप में मुझे परेशान करती है, वह है जंगल और क़स्बे के बीच अहनिZश आवाजाही करने वाले जीवन की गति। टिटहरी का आर्तनाद और झींगुर की झनकार, नदियों का हहराना, सुग्गों की सुआपंखी उड़ान, लाल प¡ूछ वाला पक्षी, जंगली कबूतर, पहाड़ी खोह में छिपे हुए बाघ - इन सभी प्राणियों, प्राकृतिक आवाज़ों और क्रियाओं से कविता के क़स्बे का मानव-जीवन लगातार प्रतिकृत होता रहता है। काव्य यहा¡ किसी भी सूरत में प्रकृति का शोषण नहीं करता। यह दरअसल सृिष्ट के साथ लोकतांत्रिका होना है। प्रकृति के चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में कवि का यह आत्मविश्वस्त व्यवहार चराचर के साथ होने और उसका हिस्सा होने के संकल्प से अपनी ऊर्जा हासिल करता है। इस सिलसिले में कवि के रचनात्मक अहंकार का एक साक्ष्य -
मैंने देखा है
बीजों का अंकुराना और फलों का पकना
पेड़ों पर पत्तों में हरे रंग का गहराना
और फिर उनका झर जाना
मैंने देखा है !

( 10 )

िशरीष की `मेहतर´ शीषZक कविता पढ़ते हुए दुनिया को और बेहतर बनाने वाले मुक्तिबोधीय मेहतरों की याद आना स्वाभाविक है। ऐसे ही `हमारे शब्द´ कविता में भीड़ में घिरे आदमी का आत्मालाप धूमिल के बौखलाए हुए आदमी को जीवित करता है। लेकिन िशरीष कविता में से कविता निकालने वाले कवि नहीं हैं। उन्हें हर बार निहत्था होकर ज़िन्दगी की नई जगहों में जाने की ज़रूरत पड़ती रहती है। इस रास्ते के ख़्ातरे िशरीष के कविकर्म के ख़्ातरे भी हैं। मसलन `कबरी की याद में´ शीषZक कविता अपनी निर्दोष मार्मिकता के बावजूद नॉस्टेिल्जया के सीधे मार्ग पर चलती चली जाती है। एक उत्कृष्ट कविता को सचाई के एक सिरे को छूते ही दूसरी सचाईया¡ से मुख़्ाातिब हो जाना चाहिए। जबकि यह कविता सचाई के एक आयाम को को हीं स्वयं सम्पूर्ण मानती है। एक बहुत प्यारी गाय के न रहने के दुख का दबाव कवि की चेतना पर इस क़दर गहरा गया है कि सिफ़Z वह दबाव कविता को निर्धारित करने लगता है और इसी वजह से एक विश्वसनीय वृत्तान्त अपनी समूची ईमानदारी के बाद भी उस प्रतीकार्थ को उपलब्ध नहीं कर पाता, जो जंगलराज की हिंस्त्र परिणतियों और बाघ के एकाधिकारवादी अत्याचार के िख़्ालाफ़ सावधान और तत्पर कर पाता। लेकिन तब भी तय है कि ये मौलिक होने और जीवन से ही प्रेरणा लेने की प्रतिश्रुतियों के अनिवार्य जोखिम हैं।

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बाज़ार की नृशंसताओं पर हिंदी में बहुत-सी कविताए¡ लिखी गईं और लिखी जा रही हैं। 1991 के बाद का भारतीय समाज जिस तरह उद्दाम उपभोक्तावाद की चपेट में आ गया है, उसके सामूहिक प्रतिकार से समकालीन कविता एक ऐतिहासिक मोड़ ले लेती है। आज यह विषय हमारे सरोकारों की धुरी है, लेकिन ज़ाहिर है कि उत्तरोत्तर इस पर कविता लिखना कठिन होता जा रहा है। वैसे तो कोई कविता स्थूल रूप से किसी एक विषय से सम्बोधित होकर अपने इशारों, इंगितों और आंतरिक ताक़त के दम पर दूसरे विषयों का भी सामना कर रही हो सकती है। इसलिए युवा कवि को बाज़ार पर सीधे-सीधे कविता लिखनी ही चाहिए, इसका कोई नियम नहीं बनाया जा सकता। ऐसा करना कविता की व्यपाकताओं पर भरोसा न करने का आत्मघात होगा। लेकिन यदि कोई प्रगल्भ और वाचाल हुए बग़ैर प्रचलित काव्यरूढ़ियों से टकरा कर एक बाज़ार-विरोधी कविता लिखता है, तो इसे एक सार्थक उपलब्धि माना जाएगा। िशरीष की कविता `टीन की चादर´ में ऐसे ही मौलिक प्रतिकार के सारे तत्व हैं। यहा¡ कवि एक निहायत सादा घटना के भीतर बाज़ार को निरस्त करने की एक उम्दा बौद्धिक कोिशश करता है। इस कविता में टीन की एक चादर को ठोंका-पीटा जा रहा है, जिसकी आवाज़ सुनकर कवि सोचने लगता है कि इससे अिख़्ार क्या बनेगा ? वह इस निष्कषZ तक पह¡ुचता है कि इससे किसी ग़रीब घर की छत बनेगी या किसी दुकान का शटर ! इसके बाद कविता एक संक्षिप्त नाटकीयता में चली जाती है और कवि दोनों सम्भाव्य विकल्पों पर ग़ौर करने लगता है। वह कहता है कि शटर बनकर यह चादर `एक बाज़ार के मुहाने को खोलने और बंद करने के काम आएगी/ निगल जाएगी / बाज़ार के बाहर के सभी सपने´ और `अगर कहीं/किसी छोटे-से घर की छत बन पाई यह/तो आएंगी गर्मियों में / ताप से चिटकने की आवाज़े इससे / बरसात में / ब¡ूदों का संगीत झरेगा / और एक धीमी टुकटुकाहट के साथ / दाना चुगेगा / गौरैयों का झुंड / जाड़ों में इस पर ´ - यहा¡ तक आने के दौरान विकल्पों की परिणतिया¡ पाठकों को समझाता हुआ कवि उस जड़ वस्तु `टीन की चादर´ को भी समझाता हुआ हो जाता है। दोनों विकल्पों के दरमियान कवि का पक्ष बहुत आसानी से समझ लिया गया है लेकिन कवि ख़्ाुद न्यायधीश न बनकर निर्णय टीन की चादर पर छोड़ देता है और उसी से पूछता है -

अब तुम ही बोलो मेरी ठनठनाती
टीन की चादर
बाज़ार जाओगी या घर ?

यह तय है कि इस `रेह्टारिकल´ सवाल में ही इसका जवाब छुपा हुआ है। सवाल का ही आदशीZकरण करने वाले हमारे दौर में, जब समस्या में डूबे रहने को ही कई बार गम्भीरता और परिपक्वता वगैरह मान लिया जाता है - ऐसे समय में इस कविता का वाचक टीन की चादर के साथ किसी बच्चे की तरह पेश आने आने लगता है और उससे एक ऐसा सवाल पूछने लगता है, जिसका जवाब प्रत्येक ईमानदार आदमी को मालूम हैै। यह एक गम्भीर विषय का `प्लेफुल´ निर्वाह है और इसी वजह से कविता में हो रही तमाम बहस के बावजूद, भीतर से टीन की चादर पर चल रही किसी शरारती टुकटुकाहट की आवाज़ लगातार आती रहती है।
जब चारों ओर क्रंदन और हाहाकार का माहौल हो और कविता के भीतर, पराजय, चोटों और हताशा की जगह स्थायी होती जा रही हो( िशरीष की कविता ने अपने आत्मतत्व को दृढ़ बनाया है और उल्लास, हास्य, शरारत, खिलवाड़, उम्मीद, आदशZ और नैतिकता और उद्बोधनात्मकता जैसी शक्तियों पर ज़्यादा भरोसा किया है। यह बात उन्हें हमारे दृश्य में अपनी तरह के एक कवि के तौर पर स्थापित करती है। बुरी ख़्ाबरें पह¡ुची तो उन तक भी हैं लेकिन अपने व्यक्तित्व के अनोखे रसायन में घोलकर उन्होंने उन्हीं ख़्ाबरों में उम्मीद की राह निकालने की कोिशश की है।

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इधर िशरीष की नई कविताओं ने स्त्री, स्मृति और राजनीति के कठिनतर और परस्पर उलझे हुए सूत्रों में जाना तय किया है। कविता के भीतर आख्यान के ढा¡चे का तो निर्वाह अक्सर ही उन्होंने किया है। इधर उन्होंने अपने ही काव्यत्व का अतिक्रमण करते हुए रिपोर्ताज़, यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण, पोलेमिक्स जैसी गद्यात्मक समझी जाती विधाओं के लिए अपनी कविता को खोला है। इसलिए वह कविता ज़्यादा लम्बी, संदर्भबहुल और विमशZधमीZ हो गई है। एक `लेबर्ड´ और बुनी गई कविता के उलट उन्होंने निरायास अभिव्यक्तियों को शुरू से ही तरजीह दी है। अब उनके पहले के गुणों में नई विशेषताओं का संश्लेषण हुआ है।
इस बदले हुए कवि-स्वभाव के साथ उपलब्धि और असफलता का एक मिलाजुला सफ़र वह कब का शुरू कर चुके हैं। उस कविता के बिल्कुल भिन्न मूल्यांकन की ज़रूरत है। वह मूल्यांकन एक पृथक ज़मीन पर और नए और अलग औज़रों के साथ ही मुमकिन है।
(व्योमेश समकालीन परिदृश्य पर तेज़ी से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि, आलोचक और संस्कृतिकमीZ हैं। संपर्क - सी-27/111, बी-4, जगतगंज, वाराणसी-2 )